घर की दहलीज ,सुबह की पहली किरणें बरामदे में बिछी सफेद चादर पर पड़ रही थीं, लेकिन घर के भीतर का माहौल सूरज की रोशनी से कहीं ज्यादा भारी था।
रसोई से आती मसालों की खुशबू और कड़ाही में छौंक लगने की आवाज इस बात का प्रमाण थी कि माधवी ने मोर्चा संभाल लिया है।
माधवी, जिनका स्वभाव उस बहती नदी की तरह था जो शांत रहकर भी पत्थर काट देती है, बिना किसी शोर-शराबे के रसोई का काम निपटा रही थीं। उनके चेहरे पर वही चिर-परिचित शांति थी, जो अक्सर गहरे धैर्य से आती है।
बरामदे में एक पुरानी आरामकुर्सी पर पुलिस से रिटायर हो चुके मनोज जी बैठे थे। अखबार का पन्ना पलटने की आवाज भी किसी सख्त हिदायत की तरह गूँजती थी। मनोज जी का मिजाज घर में अनुशासन की वह लकीर था, जिसे पार करने की हिम्मत किसी की नहीं होती थी। चश्मा नाक पर टिकाए जब वे खबरों में डूबे होते, तो परिंदा भी पर मारने से पहले सोचता।
तभी जूतों की आहट हुई। विक्रम, कोट के बटन ठीक करता हुआ और अपने लैप टॉप बैग को कंधे पर टांगे बाहर निकला। कॉरपोरेट की भागदौड़ और अनुशासन उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुके थे।
"पापा, मैं निकल रहा हूँ," विक्रम ने धीमे लेकिन स्पष्ट स्वर में कहा।
मनोज जी ने अखबार के ऊपर से अपनी तीखी नजरें उस पर डालीं और बस एक संक्षिप्त सिर हिला दिया। यह उनकी तरफ से 'ठीक है' की आधिकारिक पुष्टि थी।
विक्रम रसोई की खिड़की की ओर मुड़ा और बोला, "माँ, नाश्ता पैक कर दिया क्या?"
माधवी ने एक टिफिन आगे बढ़ाते हुए मुस्कराहट के साथ कहा, "हाँ बेटा, और परांठे गरम हैं, समय पर खा लेना।"
विक्रम ने बैग संभाला और जाने ही वाला था कि अचानक रुक गया। उसने घर के आखिरी कमरे की तरफ इशारा किया जहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। "अर्जुन अभी तक नहीं उठा? इंजीनियरिंग का आखिरी साल है और जनाब अभी भी सपनों की दुनिया में हैं?"
मनोज जी के माथे पर सिलवटें गहरी हो गईं। उन्होंने अखबार बंद करके मेज पर रखा। "इंजीनियरिंग नहीं, वह 'महारत' हासिल कर रहा है—सोने में। उसकी इंजीनियरिंग का नतीजा तो हम देख ही रहे हैं।"
माधवी ने बीच-बचाव करते हुए धीरे से कहा, "रात भर पढ़ रहा था वो, इसी लिए अब तक सोया है।"
"पढ़ रहा था या फोन पर गेम खेल रहा था, ये वो और उसका कमरा ही जानते हैं," मनोज जी की आवाज में वो कड़वाहट थी जिससे घर का तापमान दो डिग्री गिर जाता था।
जबकि दूसरी तरफ, उस बंद कमरे के भीतर, अर्जुन दुनिया की तमाम चिंताओं से बेखबर, चादर ओढ़े खर्राटे ले रहा था। अर्जुन, जो इस घर के सख्त कायदों के बीच एक खिलखिलाता हुआ अपवाद था। वह शांत माधवी, अनुशासित विक्रम और गरम मिजाजी अपने पिता मनोज जी के बीच उस ताजी हवा के झोंके की तरह था, जो जानता था कि मुश्किलों को भी मजाक में कैसे उड़ाया जाता है।
विक्रम घड़ी देखते हुए मुस्कुराया, "उसे जगाना मतलब आफत को दावत देना है। मैं चलता हूँ।"
बरामदे में फिर से अखबार खुल गया, रसोई में फिर से काम शुरू हुआ, लेकिन सबकी सुई अब उस बंद कमरे पर अटकी थी, जहाँ घर का सबसे छोटा और सबसे 'चिल' सदस्य अर्जुन अपनी नींद पूरी कर रहा था।
विक्रम के जाते ही घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया था, जिसे सिर्फ रसोई में बर्तनों की खनक काट रही थी। कमरे के अंदर, अर्जुन ने एक लंबी जम्हाई ली और अपनी चादर को पैर से नीचे धकेला। उसने खिड़की के बाहर देखा—धूप काफी चढ़ आई थी।"अरे बाप रे! साढ़े नौ बज गए?" वह खुद से बुदबुदाया और झट से बिस्तर से उतरा।उसने दबे पाँव कमरे का दरवाजा खोला और बिल्ली की तरह दबे कदमों से रसोई की तरफ बढ़ा।
उसे पता था कि अगर इस वक्त पापा की नजर उस पर पड़ गई, तो इंजीनियरिंग की डिग्री से पहले उसे 'बेरोजगारी और अनुशासन' पर लंबा लेक्चर मिल जाएगा।रसोई की दहलीज पर पहुँचते ही उसने माधवी को पीछे से कसकर पकड़ लिया। "माँ! आज नाश्ते में क्या है? खुशबू तो ऐसी आ रही है कि पड़ोसियों के पेट में भी चूहे कूद रहे होंगे!"माधवी चौंक गईं, पर तुरंत मुस्कुरा दीं। "बदमाश कहीं का! डरा दिया। धीरे बोल,तेरे पापा बाहर ही बैठे हैं।"अर्जुन ने तुरंत अपनी आवाज मद्धम कर ली और एक सेब उठाकर कुतरने लगा। "अरे माँ, पापा तो हिटलर के भारतीय अवतार हैं। उनके अखबार के पीछे क्या चल रहा होता है, कोई नहीं जानता। वैसे, आज फिर भाई मेरी शिकायत लगा कर गए हैं क्या?"माधवी ने उसे प्यार से एक चपत लगाई, "वो तेरा बड़ा भाई है, और फिक्र करता है तेरी। जा, हाथ-मुँह धोकर आ, मैं परांठे लाती हूँ।"अर्जुन अभी माँ के साथ हंसी-मजाक कर ही रहा था कि अचानक बरामदे से एक भारी और कड़क आवाज गूँजी।"माधवी! क्या अर्जुन सोकर उठ गया है?"यह आवाज सुनते ही अर्जुन के हाथ से सेब का टुकड़ा गिरते-गिरते बचा। उसकी देहयष्टि जो अभी कुछ पल पहले ढीली और बेफिक्र थी, अचानक पत्थर की तरह सख्त हो गई। चेहरे की सारी शरारत उड़ गई और उसकी जगह एक घबराहट ने ले ली।"ह-हाँ जी... वह... वह बस तैयार हो रहा है," माधवी ने बाहर जवाब दिया और अर्जुन को आँख से इशारा किया कि बाहर जाकर मिल ले।अर्जुन ने गहरी सांस ली, जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में उतरने से पहले लेता है। वह धीरे-धीरे बरामदे की तरफ बढ़ा। मनोज जी अब अखबार नीचे रख चुके थे और चश्मे के ऊपर से दरवाजे की ओर ही देख रहे थे।अर्जुन उनके सामने जाकर खड़ा हो गया।
उसकी नजरें जमीन में गड़ी थीं और उसके हाथ पीछे बंधे हुए थे।"जी... प-पापा..." अर्जुन की आवाज उसके गले में ही फंस कर रह गई। जो लड़का अभी रसोई में लतीफे सुना रहा था, उसके पास अब एक पूरा वाक्य बोलने की ताकत नहीं थी।मनोज जी ने उसे सिर से पैर तक देखा। "इंजीनियरिंग का आखिरी साल है। कॉलेज जाने का वक्त क्या है तुम्हारा? या फिर रात भर जागकर जो 'पढ़ाई' तुम करते हो, उसका नतीजा दोपहर तक सोने से निकलता है?"अर्जुन ने बोलने की कोशिश की। उसके होंठ हिले, लेकिन आवाज नहीं निकली। "व-वो... स-सर ने... एक्स्ट्रा क्लास...""साफ बोलो!" मनोज जी की आवाज थोड़ी और ऊंची हुई।अर्जुन के माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं। "जी... आज ल-लेट जाना है।"मनोज जी ने एक गहरी और ठंडी सांस ली। "तुम्हारी यह जुबान सिर्फ घर के बाहर चलती है या सिर्फ माँ के सामने? मेरे सामने आते ही तुम्हें लकवा क्यों मार जाता है? खैर, कल तुम्हारी मार्कशीट देखूंगा मैं। तैयार रहना।"मनोज जी फिर से अखबार में डूब गए, जिसका मतलब था कि इंटरव्यू खत्म हो चुका है। अर्जुन वहां से ऐसे भागा जैसे पीछे कोई शिकारी कुत्ता पड़ा हो। रसोई में वापस आते ही उसने अपनी छाती पर हाथ रखा और तेजी से सांस लेने लगा।माधवी ने उसे पानी का गिलास दिया। अर्जुन ने पानी पीते हुए फुसफुसाकर कहा, "माँ... कसम से, पापा के सामने जाते ही मुझे लगता है कि मैं अपनी हिंदी भूलकर कोई ऐसी भाषा बोल रहा हूँ जो अभी तक ईजाद ही नहीं हुई!"माधवी बस एक फीकी मुस्कान के साथ उसे देखती रहीं। उन्हें पता था कि इस घर की छत के नीचे दो अलग-अलग दुनिया बसती है—एक खौफ की, और एक प्यार की।